फागुन आते ही जहाँ प्रकृति रंगीन हो जाती है वहीं बूढ़ों पर भी जवानी सी छाने लगती है । गांवों में तो फाग और फगुआ का नजारा और भी मस्त होता है ।इसी नज़ारे को पेश करने की एक कोशिश इस कविता के माध्यम से ......

होली



हौले हौले चली फागुनी बयार
मदहोशी सी छाई है
वृंदावन में कृष्ण ने राधा संग
फिर रास रचाई है
अमराई में कोयल की टेर ने
धूम ही मचाई है
आमों के मंजर ने बूँद बूँद
मधुवा टपकाई है
छोटे बड़े सबने मिल
टोली बनाई है
बुजुर्गों और बूढ़ों में भी
जवानी सी छाई है
गाँव के पंडित ने सुबह से ही
भांग पिसवाई है
चौधराइन ने टेसू के फूलों से
बासन्ती रंग बनबाई है
चौधरी ने पीतल की पिचकारी
खूब चमकाई है
गोबर से दादी ने 
आँगन लिपवाई है
चौके में भौजी ने स्वादिष्ट
मालापूवा बनाई है
जीजा संग गुलाबी रंगत वाली
बहना भी आई है
हम न छोड़ेंगे तुझे, भाभी देवर में
ठनी लड़ाई है
ढोलक पे थाप पड़ी
किसीने मंजीरा झनकाई है
होली के गीतों ने सबमें
मस्ती बरपाई है
एक बरस बाद आखिर
होली जो आई है ।

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