क्या यह सच नहीं कि प्रकृति माँ की भाँति हमारे घावों पर मरहम लगाती है और वह सब सिखाती है जो हम किसी विश्वविद्यालय में भी नहीं सीख सकते , कुछ ऐसा ही इस कविता के बहाने ..........
प्रकृति की सीख
घर गृहस्ती के
झमेले से होकर बेजार
इसकी उसकी बातों
से हो कर दो चार
बेजान कदमों से
अकेली घर से निकल
गुलमोहर तले आ कर
बठी थी मैं
एक छोटी सी गिलहरी
पेड़ों से उतर
पांव मेरे छूकर
फूर्ति से गई जो निकल
बड़ा प्यारा लगा
जी मेरा खिल गया
कहीं कोयल तभी
कोई कुहुक सी उठी
मन मयूरा झूम-झूम नचने लगा
गुलमोहर की फूलों
ने बरसात की
तन मेरा भींग उठा
मन चंदन हुआ
ठंड़ी-ठंड़ी हवाओं
ने जो चेहरा छुआ
मैं पंख खोल
तितली सी उड़ने लगी
नीले आसमां में
थे जो बादल घने
मैं ने अपनी
हथेली से उनको छुआ
उसके ऊपर सूरज की
खिली धूप थी
उसकी गर्मी बड़ी
ही भली सी लगी
कुछ चिडियाँ मेरे
संग-संग थे उड़ रहे
मैं ने पूछा उनसे
उनका ठिकाना पता
वो मुझे ले के
अपने घर को चले
था पहाड़ों के उपर
एक सेमल खड़ा
लाल फूलों की
लाल-लाल नगरी बड़ी
था वहीं उनका
घोंसला तिनकों से बना
जिसमें उनके
बच्चे रहे थे चहचहा
याद मुझको तब
मेरे घर की हो आई
तेज कदमों में मेरे अब
एक रफ्तार थी
मैं अपनी गृहस्ती
संभालने को बेताब थी
प्रकृति है माँ उसकी सीख है सबसे बड़ी
इसमें ढूँढों तो
पाओगे जीवन की लड़ी |
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