आज के व्यस्त जिंदगी में कार्य के बोझ तले हम इतने दब गये हैं कि प्रकृति से दूर हो गए हैं और कुछ बड़े ही कीमती अनुभवों से अपने को वंचित करते जा रहे हैं , इस कविता में ऐसे ही कुछ अनमोल पलों के बारे में .........

सार्थक पल 


काम , काम और काम
आदत पर गई है ऐसे काम करने की
गर कुछ न करो तो
होता है समय की बरबादी का आभास
एक अपराधबोध जो अंदर से सुलगाता है
काम भी ऐसे जिसमें कोई नयापन नहीं
नीरस और उबाऊ
सुनती आई हूँ
काम ही जीवन का नाम है
लेकिन आज इस घनचक्कर से
निकल आई हूँ
निरुद्देश्य भटकने का
मन में कर विचार
घर से बाहर प्रकृति के करीब
कभी मैं चट्टानों पर बैठती हूँ
कभी हरी घास पर लेटती हूँ
कभी अशोक के तने से टिक
आँखें मूँद लेती हूँ
आज मन में घुमड़ते
विचारों को दिया है विश्राम
शरीर के रोयें रोयें पर ताजी हवा का
स्पर्श महसूस करती हूँ
उसकी सोंधी सी खुशबू को
अपने अंदर समेट लेती हूँ
और ताजगी से भर जाती हूँ
चिड़ियों की चहचहाहट को
कानों में उतार लेती हूँ
दूर से आती किसी फूल की खुशबू को
पहचानने की कोशिश करती हूँ
आँखें खोल नीले आसमान को निहारती हूँ
और एक पत्थर तालाब में उछालती हूँ
उड़ती तितलियों से दोस्ती करने हेतु
अपने को थिर बना
एक पेड़ में बदल लेती हूँ
वो आकर मुझ पे बैठते हैं
तो सिहर उठाती हूँ
यूँ कई घड़ी जब बीतते हैं
महसूस ये करती हूँ
बिना काम के निरर्थक भटकना
जीवन में नया आयाम खोल देता है
और वह पल हमारे जीवन का
सबसे समर्थ और सार्थक पल होता है ।
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