हम आँख वाले नहीं समझ पाते की दृष्टी की नेमत क्या चीज होती है? न तो हम कभी प्रकृति को इसके लिए धन्यवाद देते हैं न अपने सौभाग्य को सराह पाते हैं | इस कविता में कुछ न कुछ तो ऐसा ही मिलेगा आपको |
आँखें
बहुत आशा से कहा था
ससुर जी ने
‘चलिए तनि दिखा दिजीए न डाक्टर से’
जब से गाँव से आए हैं
अब बहुत कम दिखाई देता है
उन्हें
अपना काम कर लेते हैं
परंतु पढ़ नहीं पाते
चुपचाप बैठे-बैठे
कुछ गुनते रहते हैं
दृष्टि पटल हो गई है सूनी
दूर आकाश में कुछ ढूँढ़ने
की कोशिश लगातार
पिछले साल तक पढ़ लेते थे
प्रेमचंद की कहानियाँ
या भागवत की कथाएँ
मन लग जाता था उनका
अब कुछ नहीं पढ़ पाते
आशा लगा रखी है
डाक्टर कुछ ऐसी दवा देगा
कि हो जाऐगी नजर ठीक
रात दिन करते हैं
प्रार्थना
हे देव मेरी दृष्टी वापस
कर दो
कैसे बाताऊँ उन्हें
डाक्टर ने दे दिया है जबाब
काँचबिंदु है एक आँख में
दुसरी पूरी तरह से खराब हो
चुकी है
चश्मा भी अब काम नहीं आएगा
कैसे कहूँ उन्हें
ईलाज के बाबजूद भी
अब कोई चमत्कार ही
नजर की रोशनी लौटायेगा
जीवन भर किया
अब नहीं करती उनसे परदा
परदे की जरुरत नहीं रही
शायद
पर्दे की जरुरत तो है वहाँ
जहाँ आँखें होतीं हैं
अब जब आँखें ही नहीं
तो परदा कैसा
हम हैं कितने नादान
पूछते हैं उनसे
नेग तो आपने दे दिया
ये तो बताईये पोते की बहू
कैसी लगी?
‘अच्छी है’
हँस देते हैं कह के
लेकिन चेहरे पर झलक आता है
दर्द
सूरत दिखती कहाँ
सब तो धूँधला-धूँधला सा है
बुढ़ापे की त्रासदी
मन छटपटाता है
आँखें फाड़-फाड़ कर देखना
चाहते हैं
नई बहु और पोते का दमकता
चेहरा
देना चाहते हैं आशीर्वाद
निहारते हुए
सराहना चाहते हैं
लेकिन साथ नहीं देती है
नजर
मन कसक उठता है
दृष्टि का जाना
जैसे प्रकृति की सुंदरता
का रिक्त हो जाना |
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