बेटियों के लिये मेरे मन में जो एहसास है, उसे शब्दों की माला में पिरोने की एक कोशिश.........

            बेटी एक सपन सलोना
बेटियाँ  हैं   भिंगी  बयार,  बेटियाँ  हैं   ठंडी  फुहार
बेटी के आ जाने से, जीवन में आ जाती है बहार
बेटी को जन्म देना, एक सपन सलोना होता  है |
                अभी तक कहाँ भूला वो नवजात शीशु का उनींदा चेहरा
                वो शरीर की गर्महट और आंचल में भर लेने का  सुख
                बेटी के बड़ी होते ही सबकुछ भूल-भूल जाना होता  है |
याद  है  मुझे  तेरा  मचलना, रूठना  और  रोना
फिर  चुप  हो,  देर  तक हिचकी  लेना निंद  में
कितनी भी हो प्यारी बेटी, जूदाई सहना ही होता है |
               कानों में गूंजती है, छोटी सी पायल की रुनझुन
               वो  गुड़ीया,  वो घरौंदा,  वो  लोरी,  वो  झूले
               बेटी  की  माँ को सब-सब भूल जाना होता  है |
लोग सच कहते हैं बेटी, जल्दी बड़ी हो जाती है
कल तक  जिसे था बाहों में   झूला  झूलाया
उसे  आज   डोली  में   बिठाना  होता   है |
               कहाँ की  राबायत कहाँ  का  दस्तूर  है  यह
               कलेजे के टुकड़े  को जुदा  कर  दो  अपने से
               मन नहीं मानता, मगर दस्तूर निभाना होता है|
बेटी है ईश्वर की भेंट, किसी और की  अमानत
पढ़ा, लिखा, सम्भालने वाले हम हैं केवल पालक
बड़ी  होते ही उसे उसके घर पहूँचाना होता  है |
               बेटी अपने साथ ले जाती है घर की  खुशी  और  खिलखिलाहट
               उसके साथा ही चली जाती है घर की  रौनक  और  खनखनाहट   
               पर, पराई हो कर भी बेटी है,  अपनी होने के एहसास की तरावट | 
                               
                                 


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