चाह की कोइ सीमा नहीं , मैं क्या - क्या चाहती हूँ एक कविता के रुप में......
मैं चाहती हूँ
मैं चाहती हूँ
लौट जाना अपने बचपन
में
जहाँ है मेरी माँ
ढ़ेर सारा प्यार आँखों में लिए,
मेरी राह तकती |
मैं चाहती हूँ नील
कमलों को चुन
एक बेनी बनाना और
टाँकना अपने बालों में, अप्सराओं सी |
मैं चाहती हूँ
नदियों संग उतरना पहाड़ों
से
और झरना बन, छींटे
उड़ाना दूर तक |
मैं चाहती हूँ
आकाशगंगा में तिरना
इंद्रधनुष की नाव
में बैठ कर,
ब्रह्मांड के अंत
तक |
मैं चाहती हूँ
गंधराज की खुशबू बन, उड़ जाना
चारों दिशाओं में,
तितलियों के संग संग
|
मैं चाहती हूँ
भूखों की रोटी और
प्यासों के लिए
ठंडा जल बन ,
हो जाना उनकी तृप्ति |
मैं चाहती हूँ,
सुनना उस अनहद निनाद
को
जो कहते हैं गूँजता
है
अहर्निश चारों
दिशाओं में |
मैं चाहती हूँ,
शरीर के दुःख, पीड़ा, बंधनों
से
मुक्त होना और जीना
सिर्फ आत्मा के
सहारे |
क्या मेरा चाहना कुछ
अधिक है ?
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