मन के उहापोह को पंक्तियों में आबद्ध करने की एक कोशिश......

  मैं स्वयं में पूर्ण हूँ

एक दिन घर के कलह से हो कर बेहाल
और जीने की इच्छा त्याग, निराश मन
आ बैठी मैं अपने बगीचे के एक कोने में
देखा कई रंग के फूल खिले हैं
मस्त हवा में डोल रहे हैं
डालियों पर है निखार
पत्ते-पत्ते पर आई है बहार
एक चिड़ा एक चिड़ीया को छेड रहा है
कभी उसके चोंच और कभी
उसके पंखों से खेल रहा है,
क्षण भर में मिट गया मेरे मन का  विषाद
कितनी अनुपम प्रकृति
और कितना सुदंर उसका उपहार
सब कुछ है कितना भला
मानवीय रिस्तों में ही है क्यों इतनी
दुरुहता, कुरुपता|
मन में आया
क्या इन पौधों को भी कोई गम सालता होगा ?
लगता तो नहीं
इनकी तो जडों में है पानी  
और उपर खिली धूप की छानी
पत्ता-पत्ता थिरक रहा
जैसे कोई गीत गुनगुना रहा
क्यों न नाचूँ मैं भी इनके संग
जब तक हो जाउँ न बेदम
जैसे हर पौधे का अलग-अलग रंग-ढंग
वैसे ही मैं भी तो हूँ
इस प्रकृति की सौगात
तब किसी मानव से जुड़े बिना
क्यों नहीं हूँ मैं पुर्ण ?
मेरे साथी ये फूल हैं ये पत्तियाँ
जो झूम-झूम जीवन का संदेश दे रहे हैं
ये हवायें जो मेरे बालों से खेल रहे हैं
ये कोयल जो मेरे लिए गीत गा रहे हैं
मुझे मरना नहीं जिना है
क्योंकि गुलाब में कली लगी है
कल उसे खिलना है
और स्वर्ण चंपा अब सयानी हो चली है
अगले वसंत में खुशबु से भरे फुलों से
भरी होगी उसकी डाली
और मुझे गुलाब के रंग और स्वर्ण चंपा की खुशबु में
अपनी मेहनत का रंग देखना है
ईश्वर की दिव्य सुंदरता को उसमें निरखना है|



 



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